कौन हूँ मैं?

कौन हूँ मैं?

क्या हूँ मैं?

कहाँ हूँ मैं?

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यूँ लगता है ज़िंदगी जी डाली

पर अवसोस इस बात का है

खुद से अनजान हूँ मैं

इस जानने की कोशिश मैं

तो अब डर लगता है ………

कौन हूँ मैं?

क्या हूँ मैं?

कहाँ हूँ मैं?

डर लगता है

कहीं खुद से ही नाराज़

ना हो जाऊँ मैं

कैसे मनाऊँगी उसे

कैसे समझाऊँगी उसे

जिससे बेख़बर रही सारी उम्र मैं

कौन हूँ मैं?

क्या हूँ मैं?

कहाँ हूँ मैं?

डर जाती हूँ सहम जाती हूँ

सिमट जाती हूँ मैं

एक ख़ौफ़ ज़दा सनाटा सा

छा जाता है इरदगिर्द

सब कुछ दुँधला सा हो जाता है

दर्द भरीं सिसकियों मैं बिख़र जाती हूँ

कौन हूँ मैं?

क्या हूँ मैं?

कहाँ हूँ मैं?

शरारतें करना उसकी आदत थी

ग़लतियाँ करना उसकी फ़ितरत थी

जाने कब भटक गयी उस राह से वो

वो समझतीं थी सब जानती है वो

अवसोस ………

बाहर का डर तो एक आइना है

जो भीतर छिपा है उसका अक्स भर है

काश थोड़ा भीतर भी झांका होता

कभी खुद को भी जाना होता

सारी उम्र लगा दी दुनिया को समझने में

कुछ पल अपने पे ज़ाया किए होते

तो ये उम्र ज़ाया सी ना लगती

कौन हूँ मैं?

क्या हूँ मैं?

कहाँ हूँ मैं?

 

Neetu Karki

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