प्रेम और अहंकार कभी साथ नहीं चल सकते|हम प्रेम ही तो हैं….इसको पाने की ज़िद और पा कर अहंकार होना माया ही तो है|
” तो क्या फिर मेरे अंदर का प्रेम सिर्फ एक भ्रम है? तो मतलब जो मैं चुनती हूँ वही सत्य हो गया मेरा ? हँसी आती है अपने आप पर
जब इस सवाल को देखती हूँ| कभी अहंकार को प्रेम समझने की ग़लती कर अपने ही प्रेम स्वरूप का त्याग करने की भूल हम कर
देते है| यही तो माया है| “
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स्वाहा–पॉन्डिचेरी
प्रेम, सत्या और अहंकार
किसी साँझ की सिन्दूरी शाम जैसे, प्रेम हर दिल को छू ही लेता है| प्रेम की माया ही ऐसी है| सांसो की कौन सी लय से धड़कन बन जाए पता ही
नहीं चलता| हम भूल जाते है की प्रेम ने हमे पहले ही चुन लिया है तो हम प्रेम को कैसे चुन सकते है| वह तो है मेरे अंदर, कही बहुत भीतर– इस
तरह छिपा हुआ, के स्वार्थ और मोह की परत उठालूँ तो सैलाब सा आ जायेगा| तो फिर किस बात का डर है? डूब जाने का? पर फिर किनारे भी
कौन से मेरे है ? क्या है मुझ में ऐसा जो यह बांध टूट नहीं रहा? पता था पर अनजान बनने का अपना ही सुख है| प्रेम और अहंकार साथ-साथ
नहीं चल सकते| पर प्रेम ने तो मुझे चुन लिया है और अहंकार जन्मों का संस्कार? उसने कहा तुम सत्य को जानो| मैंने कहा दोनों ही मेरे अंदर है?
तो क्या फिर मेरे अंदर का प्रेम सिर्फ एक भ्रम है? तो मतलब जो मैं चुनती हूँ वही सत्य हो गया मेरा ? हँसी आती है अपने आप पर जब इस सवाल
को देखती हूँ| कभी अहंकार को प्रेम समझने की ग़लती कर अपने ही प्रेम स्वरूप का त्याग करने की भूल हम कर देते है| यही तो माया है|
अहंकार को प्रेम समझना और प्रेम को भूल जाना क्योंकि प्रेम कभी अहंकार का रूप ना ले पाया है और ना लेगा| प्रेम पाने की ज़िद ने अंदर के
प्रेम को कभी बहने ही नहीं दिया| ना बेटी, ना बेहेन, ना बीवी ना प्रेमिका बन कर| जन्मों की एक चाह और ज़रूरतो को प्रेम का नाम देकर हम
बाजार में बोली लगाने बैठ जाते हैं| अहंकार को प्रेम समझना ये भ्रम है| प्रेम तो तू है और यदि तू प्रेम नहीं तो कुछ भी सत्य नहीं है|
प्रेम के दर्द को महसूस कर|
पर ये होता कैसा है ?
तेरी सांसों जैसा, जिनकी ख़ुशबू तो महसूस होती है पर मैं अपने अंदर भर नहीं सकती| तेरे स्पर्श जैसा जो तेरे ना होने पर भी महसूस होता है| तेरी
नज़रों जैसा जो ना होने पर भी मुझे देखती है| के तू दीखता तो है पर कही नज़र नहीं आता| के शिकायत है तुझसे पर दिल दुआ भी तेरी ही मांगता
है| शुक्रिया तेरा के तुझसे गुज़रते मेरे दिल ने प्रेम का अनुभव तो किया| शायद इससे यूँही गुज़रते हुए एक दिन मैं प्रेम बन जाऊँ| तो अहंकार को
प्रेम समझने की ज़िद छूट जाए| स्वार्थ और मोह की परत उठ जाए| इस पूरी यात्रा में पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो अपने लिए बस प्रेम ही दीखता है|
फिर महसूस क्यों नहीं किया? क्योंकि प्रेम का मतलब अपनी ज़रूरतों, अपना ख़ालीपन का दूर होना, इन स्वार्थ भरी नज़रों से देखा था मैंने– तो
कैसे होता प्रेम महसूस? एक ख़ालीपन सा आ गया है; के जीवन भर जो मैं हूँ उसे समझा नहीं बस ज़रूरतों को पूरी करती रही।
और ज़रूरतों की पूर्ति कभी कहाँ होती हैं?! क्यों नहीं? क्या सच इनकी मुझे जरूरत थी या बस मेरा घमंड था? रिश्तों में प्रेम ना बहे तो ख़तम हो
ही जाते है जैसे ऑक्सीजन ना मिलने पर कोशिका| प्रेम पाने की चाह से प्रेम करोगे तो अपने सत्य से एक दिन दूर हो ही जाओगे| बस इतना ही
सिख पाई मैं|
के हर शमा मेरे दिल की इस दर्द से रौशन रहे|
के वो ना सही उनके ज़िक्र से मेरी महफ़िल सजती हो|
बस बता दे एकबार मेरे ख़ता की सज़ा क्या है|
तेरे कदमों के अलावा मेरी जगह कहाँ है?
SHARAYU NAIK
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Responses
Beautiful. Invigorating. Prem se bhi ooncha hai Prem ka bhaav. Aur Bhaav main hee Bhagwan Baste Hain. Man ki antim awastha hai Prem. Uso Prapt ho jaayen to poorn ho jaayain. Jai Gurudev.